दैनिक पथ योजना का अर्थ
दैनिक पथ योजना की संकल्पना सबसे पहले ”हार्बर्ट स्पेंसर” ने दी थी |. ‘दैनिक पाठ योजना’ को ‘शिक्षण की रूपरेखा‘ अथवा ‘शिक्षण की योजना‘ के नाम भी से जाना जाता है। जब शिक्षक एक निश्चित अवधि के लिए शिक्षण की योजना तैयार करता है तो उसे दैनिक पाठ योजना या शिक्षण की योजना अथवा शिक्षण की रूपरेखा कहते हैं।
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दैनिक पथ योजना की परिभाषा
पथ योजना की परिभाषये काई विद्वानों ने दी है उनमें से कुछ इस प्रकार है:
एल. बी. सैडस के अनुसार,” पाठ-योजना वस्तुतः कार्य करने की योजना है। इसमें अध्यापक का कार्य दर्शन, दर्शन ज्ञान अपने विद्यार्थियों के संबंध में उनकी जानकारी, शिक्षा-लक्ष्यों का बोध, विषय-वस्तु का ज्ञान एवं प्रभावपूर्ण विधियों का प्रयोग में उसकी योग्यता का समावेश होता हैं।”
बिनिंग एण्ड बिनिंग के अनुसार,“दैनिक पाठ योगना के निर्माण में उद्देश्यों को परिभाषित करना, पाठ्य-वस्तु का चयन करना तथा उसे क्रमबद्ध रूप में व्यवस्थित करना और प्रस्तुतीकरण की विधियों एवं प्रक्रियाओं का निर्धारण करना।”
एन. एल. बाॅसिंग के अनुसार,“शिक्षण क्रियाओं तथा उद्देश्यों के आलेख को पाठ योजना कहते हैं। शिक्षण उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए शिक्षक जिन क्रियाओं का नियोजन करता है उनके आलेखन को पाठ योजना की संज्ञा दी जाती है। इसे लिखित व अलिखित दोनों ही रूपो में तैयार किया जाता हैं।”
दैनिक पथ योजना का उद्देश्य
पथ योजना 1के उद्देश्य निम्न प्रकार से है :
- कक्षा में शिक्षण की क्रियाओं तथा सहायक सामग्री की पूर्ण जानकारी कराना।
- निर्धारित पाठ्य वस्तु के सभी तत्वों का विवेचन करना।
- . प्रस्तुतीकरण के क्रम तथा पाठ्य वस्तु के रूप में निश्चितता की जानकारी कराना।
- . कक्षा शिक्षण की समय शिक्षक के विस्मृति की संभावना कम होना।
- शिक्षण अधिगम, सहायक सामग्री के प्रयोग के स्थल,शिक्षण विधि तथा प्रविधियों का निर्धारण करना |
दैनिक पथ योजना का महत्व
पाठ-योजना का महत्व निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है-
1. लक्ष्यों की स्पष्टता– अमुक पाठ का शिक्षण यो प्रदान किया जा रहा है? जब तक अध्यापक स्वयं इस प्रश्न के उत्तर के प्रति स्पष्ट नहीं, तब तक वह अपने शिक्षण-कार्य में रुचि नहीं ले सकता। कोई भी कार्य करने से पहले व्यक्ति को उसका लक्ष्य स्पष्ट होना चाहिए। इसी तरह शिक्षण-कार्य शुरू करने से पहले अध्यापक को स्पष्ट रूप से ज्ञात होना चाहिए कि जिस पाठ को वह पढाने जा रहा है उस पाठ को पढ़ाने से उसे किन उद्देश्यों की प्राप्ति कानी है। ‘पाठ-योजना’ उसे पाठ के लक्ष्यों को स्पष्ट रूप से निश्चित तथा निर्धारित करने में सहायक सिद्ध होती है।
2. शिक्षण-विधियों का चयन– शिक्षण के उद्देश्य निश्चित कर लेने के बाद अध्यापक को उचित शिक्षण-विधियों के चयन की जरूरत होती है। कई नई पुरानी शिक्षण-विधियाँ प्रचलित हैं। जैसे- पाठ्य-पुस्तक विधि’, भाषण-विधि, समस्या विधि, वाद-विवाद विधि, प्रोजेक्ट विधि आदि। कौनसी शिक्षण-विधि पाठ्य-विषय पढ़ाने के अनुकूल होगी इसका निर्णय पहले से लेना जरूरी है। यह निर्णय लेते समय अध्यापक को विद्यार्थियों की योग्यताओं तथा क्षमताओं का भी ध्यान रखना होता है एवं चुनी गई शिक्षण-विधि की कार्य-प्रक्रिया का भी ध्यान रखना होता है। इसके लिए जरूरी है कि शिक्षण-विधि की कार्य-प्रक्रिया को लिखा जाये ताकि उसके सुनिश्चित संचालन में अध्यापक को किसी तरह की कठिनाई का सामना न करना पड़े। अत: ‘पाठ-योजना’ शिक्षण की प्रक्रिया को प्रभावशाली ढंग से संचालन में मददगार सिद्ध होती है।
3. शिक्षण-सामग्री की व्यवस्था में मददगार-शिक्षण-विधि के अनुरूप अपने शिक्षण को प्रभावशाली एवं सुबोध बनाने हेतु अध्यापक को विभिन्न प्रकार के मददगार साधनों की आवश्यकता पड़ती है। अगर इन साधनों का पहले से निश्चय करके इनकी व्यवस्था कर ली जाये तो शिक्षण-कार्य के सुसंचालन में मदद होती है। इस तरह पाठ-योजना शिक्षण-सामग्री की व्यवस्था में सहायक सिद्ध होती है।
4. समय तथा शक्ति में बचत-पाठ-योजना’ के निर्माण से अध्यापक तथा छात्रों के समय में बचत होती है एवं उनकी शक्ति का भी अपव्यय नहीं होता। योजना के अनुसार समूचा शिक्षण-कार्य स्वाभाविक गति से चलता रहता है। अध्यापक को पता है कि उसे कब क्या करना है ? उसे यह भी पता होता है कि छात्रों को क्या करना है ? इसलिए छात्रों की शक्ति का भी सार्थक उपयोग होता है।
5. आत्म-विश्वास की वृद्धि में मददगार-अध्यापक शिक्षण कार्य के लिए जितना तैयार होगा उतना अधिक वह अपने आप में आत्म विश्वास का अनुभव करेगा तथा यह निश्चित है कि पाठ-योजना अध्यापक को पढ़ाने हेतु तेयार करती है। पाठ-योजना से सुसज्जित अध्यापक पूर्ण विश्वास के साथ कक्ष में जाता है। उसे पहले से मालूम होता है कि उसे कहाँ क्या करना है ? किन-किन सोपानों में से गुजरना है ? छात्रों को कैसे प्रेरित एवं व्यस्त करना है-आदि। अतः उसका आत्म-विश्वास कहीं भी शिथिल नहीं होता। आत्म-विश्वास की यह पूर्णता उसके शिक्षण-कार्य को रोचक, उपयोगी, प्रभावशाली, संतोषजनक एवं आनंददायक बनाती है। अत: पाठ-योजना आत्मविश्वास की वृद्धि में मददगार सिद्ध होती है।
पाठ-योजना के व्यवस्थित निर्माण के लिए उसे कई सोपानों में विभाजित किया जाता है। शिक्षा शास्त्री हरबर्ट ने पाठ-योजना के निम्न पाँच सोपानों का वर्णन किया है-
1. भूमिका-
2. प्रस्तुतीकरण-
3. तुलना या संबंध निर्धारण-
4. प्रयोग-
5. पुनरावृत्ति-
पाठ-योजना का प्रारूप –
दिनांक- | कक्षा- |
विद्यालय- | वर्ग- |
विषय- | कालांश- |
उपविषय- | अवधि- |
प्रकरण- |